आज काफी जद्दोजहद के बाद नेताजी को कुर्सी पर बैठने का सौभाग्य मिला जिसे उन्होंने बेबाकी से झूठ बोलकर धर्म , जातिवाद का चोगा पहने अपने समझदार वोटरों से हासिल किया था !
नेताजी का चापलूसी की मालाएं पहनाकर जोरोशोरों से स्वागत किया गया !
नेताजी हाथ जोड़े फरियादियों की उम्मीदों को कुचलते हुए शान से कमरे में प्रवेश करते हैं । सामने चमचमाती कुर्सी देखकर उनका चेहरा दमक उठता है ।
बड़े ही प्रफुल्लित मन से नेताजी बैठते हैं कुर्सी पर !
पर यह क्या ! कुर्सी तो डगमगाने लगी !
नेताजी शर्म से लाल पीले पड़ गए और भीड़ अचंभित होकर फुसफुसाने लगी !
लोगों ने देखा कि कुर्सी का एक पाया नीचे से टूटा हुआ था जिससे वह डगमगा रही थी !
तभी एक समर्थक नें तुरंत नेता जी का ध्यान खींच कहा ” अरे ! रामसेवक बढ़ई को बुलाना चाहिए । बाहर खड़ा है हाथ जोड़कर ! आज ही लड़के की सौगन्ध खाकर कहा था कि अगर उसकी दुकान नेताजी खुलवा दें (जो उनके ही किसी चहेते बाहुबली ने बंद करवा दी थी हफ्ता न मिलने के चलते )तो जिंदगी भर एहसानमन्द रहेगा नेताजी का..!”
नेताजी का इशारा भर पाते ही समर्थक दौड़े पड़े ।
बुलावा पाकर रामसेवक की आँखों में खुशी के आंसू भर गए परंतु अंदर पहुंचते ही
सारे आसूँ जम गए !
नेताजी उसे देख चहककर बोले ” अरे ओ रामसेवक !
चल सही कर जल्दी इसे , दुकान चाहिए ना तुझे ! “
पर रामसेवक खाली हाथ आया था यह सोच कर कि नेताजी उसके हाथ में दुकान की सौगात रखेंगे ! सबकी निगाहें उसपर टिक गईं ! अब अगर वापस गया तो दुकान गई ही , जमीन भी ले लेंगे ये गुर्राते हुए समर्थक ! खैर , जब कुछ उपाय नहीं सूझा तो बिचारा तुरंत टूटे हुए पाए के नीचे लेट गया..!
सभा अचंभित उसके सेवाधर्म से !
पर नेताजी ने कहा “अरे मूरख अभी भी डगमगा रही है । कैसे लेटा है तू “
यह सुनकर स्वाभिमान से उभरी छाती खिसकाकर उसने पाए के नीचे टिका दी ,
और कुछ इस तरह कुर्सी हो गई फिट !
नेताजी फूले नहीं समा रहे थे और नीचे वो सहिष्णु लेटा हुआ था बिना हिलेडुले , क्योंकि इतने सालों बाद नेताजी की स्वीकारोक्ति ने उसकी आशाओं के बुझ चुके दीपक की लौ वापस ला दी थी , वह बात अलग है कि नेताजी की दी हुई इसी लौ से निकली लपटों ने कितनों की जिंदगियां और घर जलाकर राख कर दी ये अनुमान लगाना थोड़ा कठिन है !
समर्थक उसे कुचलते हुए बड़े शान से नेताजी को मालाएं पहननाते रहे !
काफी देर बाद जब चापलूसी का सिलसिला खत्म हुआ तब नेताजी जी उठे ।
पर रामसेवक नहीं उठा.!
नेताजी सकपकाकर बोले
“अरे ओ रामसेवक !
हम खुश हुए तेरे सेवाभाव से ,
उठ और ले अपनी दुकान “
पर नहीं , अब उस
ठंडे पड़ चुके शरीर को दुकान की आस नहीं रही !
रामसेवक मर चुका था उसी आशाओं के दीपक की लौ में जलकर जिसे आग नेताजी ने दी थी !
अगले दिन पेपर में छपा “नेताजी की सेवा में समर्पित रामसेवक का निधन “!
आरोप-प्रत्यारोप शुरू हुआ और पता चला कुर्सी का पाया विपक्षी ने तुड़वाया था सोची समझी साजिश के तहत , जिसका अन्त रामसेवक जैसे कितने ही भोली भाली जनता की “हत्या” के साथ होता जा रहा है आज भी !
~ वैभव मिश्रा
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