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पिछले भाग में हमने जाना कि नागालैंड में समस्याओं की शुरूआत कहां से हुई। अब इस भाग में हम जानेंगे कि कैसे नागालैंड के एक अलग राज्य बन जाने के बावजूद, उसके एक अलग देश की मांग जारी रही और इस बीच वहां के आम लोगों की ज़िंदगी पर क्या असर पड़ा?
साल 1963 में नागालैंड असम से अलग होकर एक नया राज्य बन गया। उधर, फिजो 1960 में ही भारत छोड़कर लंदन जा बसे थे, लेकिन समस्या अब भी बनी हुई थी। इस समय तक NNC यानी नागा नेशनल काउंसिल कई गुटों में बंट गई थी और ये गुट अब भी नागालैंड को एक अलग देश बनाने की मांग पर अड़े हुए थे। राज्य में हिंसा अब भी जारी थी। इस मोर्चे पर एक तरफ भारतीय सेना तो दूसरी तरफ नागा विद्रोही।
इस बीच 1964 में नागालैंड में चुनाव भी कराए गए। भारत सरकार भी नागालैंड को सामाजिक-सांस्कृतिक रूप से ज्यादा छूट देने को तैयार थी। इसके लिए बाकायदा संविधान में संशोधन तक कर दिए गए और संविधान में आर्टिकल 371A जोड़ दिया गया। इस आर्टिकल के मुताबिक अगर केन्द्र का बनाया कोई भी कानून नागा समुदाय के पारंपरिक नियम-कानून से टकराते हैं, तो वह नागालैंड में तभी लागू हो पाएंगे जब वहां की विधानसभा में पारित होंगे।
इस बीच साल 1975 तक आते-आते तब की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की बातचीत की कोशिशें रंग लाई। मेघालय के शिलांग में भारत सरकार और NNC लीडरशिप के बीच एक समझौता हुआ। इस समझौते में NNC नेतृत्व ने भारत के संविधान को बिना किसी शर्त स्वीकार कर लिया था और अपने हथियार डालने की बात कही। इस तरह इस समझौते ने आगे की बातचीत के लिए फौरी तौर पर एक ज़मीन तैयार कर दी।
लेकिन अब भी एक अलग देश की मांग खत्म नहीं हुई थी। दरअसल फिजो ने इस समझौते पर कुछ नहीं कहा। दूसरी तरफ इस समझौते से असंतुष्ट NNC का धड़ा अलग हो गया। जिसमें थुइ नगा लिग मॉईवा, इसाक चुसू स्वु और एस. एस. खापलांग शामिल थे।
फिर साल आया 1980। इस साल शिलांग समझौते से नाराज़ थुइ नगा लिग मॉईवा ने अपने कुछ और समर्थकों के साथ नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नागालैंड (NSCN) नाम का एक अलग संगठन बना लिया। कुछ ही समय में चुसू स्वु और एस. एस. खापलांग भी इसमें शामिल हो गए। लेकिन जल्द ही इन नेताओं में भी मतभेद सामने आ गया। 1988 में खापलांग ने NSCN से अलग होकर NSCN-K बना लिया। यहां ‘K’ का मतलब था खापलांग। लेकिन खापलांग भी गुजर गए और उनके जाने के बाद एकमात्र NSCN बचा वह था NSCN-IM। यहां ‘I’ का मतलब इसाक है और M का मतलब मॉईवा।
इस तरह नागालैंड की आज़ादी को लेकर जो विद्रोह NNC ने शुरू किया था, अब उसकी बागडोर संभाल रही थी NSCN-IM। NSCN-IM ने ग्रेटर नागालिम की मांग जोरशोर से उठाना शुरू किया। उन्होंने ग्रेटर नागालिम उस क्षेत्र को कहा जिसमें सभी नागा समुदाय रहते थे। इसमें आज के नागालैंड के अलावा असम, मणिपुर, अरुणाचल प्रदेश और म्यांमार के भी कुछ हिस्से शामिल थे। इन मांगो को लेकर NSCM-IM ने अपनी कोशिशों को इतना तेज़ कर दिया कि वह नागालैंड ही नहीं बल्कि पूरे पूर्वोत्तर में उग्रवाद की परिभाषा बन गई। ऐसे में भारत सरकार जब भी बातचीत के लिए कदम आगे बढ़ाती वह पूरी कोशिश करती कि यह संगठन बातचीत की टेबल तक ज़रूर पहुंचे।
इस तरह 1990 के दशक में भारत के दो प्रधानमंत्री इस संगठन के नेताओं से मिले। लेकिन ये दोनों ही मुलाकातें देश के बाहर हुई। सबसे पहले 1995 में नरसिम्हा राव इन नेताओं से पेरिस में मिले। फिर 2 साल बाद यानी 1997 में एच डी देवगौड़ा जो तत्कालीन प्रधानमंत्री थे; ने इन नेताओं से ज्यूरिख में मुलाकात की।
इस बातचीत के दौरान ही 1997 में एक सीजफायर समझौता साइन हुआ। इस समझौते के तहत यह तय हुआ कि न ही भारतीय सेना इन गुटों के खिलाफ कोई सैनिक अभियान करेगी न ही ये विद्रोही गुट हथियार उठाएंगे।
असल में यह सीजफायर समझौता भारत सरकार और नागालैंड के बीच चले आ रहे संघर्ष में एक मील का पत्थर साबित हुआ। इस समझौते के बाद नागालैंड के अंदर हिंसा में एकदम से कमी आ गई। वहां आर्थिक गतिविधियां भी धीरे-धीरे बढ़ने लगी। साथ ही पर्यटकों की आवाजाही में भी तेजी आई।
इस बीच हिंसा की छोटी-मोटी घटनाएं होती रहती थी। लेकिन वहां के प्रमुख विद्रोही गुट NSCN-IM की तरफ से हिंसा बंद कर दिया गई थी। दूसरी तरफ एक औपचारिक और स्थायी समझौते के लिए बातचीत का सिलसिला पहले से कहीं ज़्यादा बढ़ गया।
ऐसे में सवाल उठता हैं कि आखिर ऐसी क्या वजहें हैं जो अब भी नागालैंड को अशांत क्षेत्र घोषित करना पड़ रहा है? ऐसा क्या है जो इतने सकारात्मक कदमों के बाद भी, आज भारत और नागालैंड के बीच रिश्तें एक निश्चित मुकाम पर नहीं पहुंच पाएं हैं।
इन सारे सवालों के जवाब जानेंगे हम इस सीरीज के अगले भाग में।